मुझे याद आते है
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मैं कितनी अकेली
सोचती हु आज मैं कितनी अकेली
हथेली की तरह फैली चौड़ी सड़क पर
समुन्द्र की तरह फैली महानगर की भीड़ है चारों तरफ
फिर भी
सोचती हूँ हाय आज मैं कितनी अकेली
कहकहे गूंजते है हर उलझन से मुक्त
गूंजती है बच्चो की किलकारियां
उन्मुक्त हंसी में भविष्य की धूप
देखकर उनको सोचती हु हाय
आज मै कितनी अकेली
क्यूँ हूँ जिन्दगी से हताश और निराश
गगन को देखती हूँ नज़र उठाकर
मेरी तरह वो भी है कितना अकेला
न सूरज उसका ना चाँद तारे उसके
तन्हा हूँ मैं आंसू की एक बूँद की तरह
साथी कोई मीत नहीं ,सुन्दर सपनो का गीत नहीं
चाहती हु हंस पडूँ मगर हंस नहीं पाती हूँ
और सोचती हु ……
हाय आज मैं कितनी अकेली
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